
नज़र अख़्लाक के वो पुर संकू मंज़र नहीं आते
गले में बांह डाले श्याम और अख़्तर नहीं आते ।
खिलौने भी है सहमे से उदासी उनके छाई है
उन्हें अब खेलने बच्चे सभी मिल कर नहीं आते ।
न बच्चों में बहलता है न चौकें में किसी का दिल
वो जब तक लौट कर महफ़ूज़ घर शौहर नहीं आते ।
ये किसने नफरतों के बीज बोया है ख़ुदा जाने
पड़ोसी भी अब पहले से हमारे घर नहीं आते ।
न भड़काते कोई नफ़रत की चिंगारी जो हर दिल में
न जलाते घर कोई और हाथ में ख़ंजर नहीं आते ।
ये कैसे रहनुमा है क़ौम के उंगली दिखाते हैं
लगा कर राह पर सबको जो मर्क़ज़ पर नहीं आते ।
ये नाहक़ दुश्मनी आपस की ये रंजिश ज़माने में
कहां ले जाएगी तूफ़ान तो कह कर नहीं आते ।
ख़िलाफ़त हक़ से ना अबराह की हद से गुज़र जाती
अबाबीलों के लश्कर से कभी पत्थर नहीं आते ।
बदल दे सोच दुनिया की जो ज़हनों दिल तलक पहुंचे
ख्यालों में कुछ ऐसे शेर भी बरतर नहीं आते ।
जहांने नौ की उम्मीदें लिए हम ख़ुश्क आंखों में
जो बह जाए ख़ुशी से अश्क़ के गौहर नहीं आते ।
चलो ढूंढे कहीं ‘आलम’ नई इख़लाक़ की दुनिया
हमारे साथ लेकिन कोई भी रहबर नहीं आते ।