आसन्न लोकसभा चुनावों में मतदान के लिए देश के बहुसंख्यकों और राजनीतिक दलों के नेताओं के मन में मुस्लिम समुदाय के विषय में कुछ ‘स्थाई धारणाएं’ हैं। जैसे, वे भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी के पक्ष में मतदान नहीं करेंगे। भले ही पार्टी प्रत्याशी मुसलमान ही क्यों न हो। वे उस प्रत्याशी के पक्ष में सामूहिक मतदान करेंगे जो भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी को चुनावों में हरा पाने में सक्षम लगेगा। वे उस दल के पक्ष में मतदान करेंगे जो उन्हें हिन्दुओं से अधिक सुविधाएं प्रदान कराने का आश्वासन देगा।
रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद प्रकरण मुस्लिम मतदाताओं को भाजपा के विरूद्ध मतदान करने का कारक बनेगा और मोदी सरकार द्वारा सेना को ‘कश्मीर समस्या के समाधान’ के लिए दी गयी ‘खुली छूट’ तथा इसके फलस्वरूप सेना द्वारा वहां आतंकवादियों के खिलाफ की जा रही कार्रवाई मुसलमानों को भाजपा के विरोध में मतदान को प्रेरित करेगी, आदि।
ये धारणाएं कितनी सही हैं, समय बताएगा। लेकिन मोदी सरकार के विपक्षियों व मीडिया द्वारा प्रचारित यही किया जा रहा है। दुर्भाग्य से इनमें से अनेक धारणाओं पर विश्वास करने के कारण भी रहे हैं। कई धारणाएं राजनीतिक स्वार्थों के चलते जबरन बनाई गई हैं। इन्हें बनाए रखने में इस तथ्य तक को नकार दिया गया है कि ऐसी धारणाएं मुसलमानों की देशभक्ति पर प्रश्नचिह्न लगाती हैं। वह भी तब जब देश में कश्मीर व पाकिस्तान विषयक प्रश्न पर शहीद होनेवाले मुस्लिम शहीदों की संख्या उनके जनसंख्या के अनुपात के हिसाब से कम नहीं रही है।
स्वाधीनता पूर्व की परिस्थितियों तथा इसके फलस्वरूप 1947 में हुए देश विभाजन के बाद से दोनों समुदायों के मध्य बनी इस अविश्वास की खाई को कम करने की जगह उसके हितैषी कहलानेवाले कांग्रेस व बाद के वर्षों में बने कांग्रेसी मानसिकता के दलों जैसे- सपा, बसपा, तृणमूल कांग्रेस, आप, राष्ट्रीय जनता दल व वामदलों द्वारा मुसलमानों को अपना बोट बैंक बनाए रखने के लिए प्रयासपूर्वक बढ़ाया ही गया है। भले ही इन तथाकथित सेक्युलर दलों ने मुसलमानों की भलाई के लिए कुछ भी नहीं किया हो, वे समाज में भेदभाव का जहर घोलकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हैं।
देश के 1947 में हुए दुर्भाग्यशाली विभाजन के बाद स्वाभाविक था कि देश का बहुसंख्यक हिन्दू समाज यहां रह गये मुस्लिमों को शंका व अविश्वास की दृष्टि से देखता। उन्हें यह लगना भी स्वाभाविक था कि अपने हिस्से का जनसंख्या के अनुपात में एक-तिहाई भू-भाग पाकिस्तान के रूप में ले चुकने के बावजूद भारत में बने रहनेवाले मुसलमान उनके हिस्से पर जबरन हिस्सेदारी बनाए हुए हैं।
वे स्वयं समन्वय का प्रयास करें भी तो यहां शातिराना तरीके से रह गये पाकिस्तान के समर्थक राजा महमूदाबाद जैसों के गुर्गे ‘हंसकर लिया है पाकिस्तान, लड़कर लेंगे हिन्दुस्थान’ जैसे नारे उन्हें ऐसा करने से रोकते थे। आज 70 वर्ष बाद, जब विभाजन करनेवालों व इसे सहनेवालों की तीसरी व चौथी पीढ़ी आ चुकी हो तथा जो इस घटनाक्रम के लिए किसी भी रूप में उत्तरदायी न हों, के मध्य समन्वय के स्थान पर अलगाव, भय व अविश्वास बना रहना दुर्भाग्य ही कहा जाएगा।
वास्तविकता तो यह है कि दोनों समुदायों के मध्य की इस खाई को जान-बूझकर व योजनाबद्ध तरीके से बनाए रखा गया है। देश की पहली कांग्रेसी सरकार के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर आज की कांग्रेस व उसके नेतृत्व की समूची नीतियां, देश के कांग्रेस की कोख से जन्में गैर भाजपाई अन्य विपक्षी दलों के मुस्लिम मतों को लेकर बने पूर्वाग्रह, देश को तोड़ने के प्रयास में ही अपना पूरा श्रम व ऊर्जा लगानेवाले वामदलों की साजिशें तथा स्वाधीन भारत में भी केवल मुसलमानों के बल पर अपनी राजनीतिक गोटी चलकर लाभ कमाने को तत्पर मुल्ला-मौलवियों की जमात ने इस खाई को पाटने या इसमें स्वस्थ सोच विकसित होने को अपने लिए खतरा मान इस खाई को प्रयासपूर्वक और चौड़ा ही किया है।
दुर्भाग्य यह कि इस चांडाल चौकड़ी के पंजों में फंसा सामान्य मुसलमान जनमानस भी भड़काई गई भावनाओं में आकर अनेक बार ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे…’ जैसे देश विरोधी नारों, उ.प्र. के अखलाक कांड जैसे विशुद्ध स्थानीय प्रकरणों को भाजपा व उसकी सरकार के प्रति अविश्वास के रूप में ही लेता रहा है।
यह भी उतना ही सच है कि कश्मीर में आतंकवाद से वहां के मुसलमानों के ही सर्वाधिक पीड़ित होने के बावजूद जहां देश के अनेक मुस्लिम परिवार जाने-अनजाने आतंकवादियों को शरण देने के दोषी रहे हैं। वे मोदी सरकार के द्वारा आतंकियों के खिलाफ की जानेवाली कठोर कार्रवाइयों को मुसलमानों पर अत्याचार के रूप में देखते हैं। और तो और, मोदी सरकार द्वारा मुस्लिम महिलाओं के हित में लाया गया ‘तीन तलाक’ बिल भी सरकार को मुस्लिम विरोधी सिद्ध करने के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है।
2019 के चुनावों में कांग्रेस, सपा-बसपा गठबंधन, तृणमूल कांग्रेस, आप, राष्ट्रीय जनता दल आदि ही नहीं भारत से विलुप्त हो रहे वामदलों ने अपनी तैयारियां ही मुस्लिम मतों को केन्द्र में रखकर, उन्हें रिझाकर सत्ता पाने के लिए तैयार की है। ये दल इसी प्रयास में हैं कि मुसलमान उनके दल की मुस्लिमपरस्त नीतियों को देख उनके ही ‘वोट बैंक’ बनें