ज़िंदगी की उलझनो मैं मुब्तला रहता हूँ मैं।
वक़्त निकला जाता है और सोचता रहता हूँ मैं।
क्यूँ न खुशियां लौट कर जाती मिरे दर से भला।
घर मैं रहकर भी तो अकसर ला पता रहता हूँ मैं।
जिस किताब ए इश्क़ को रखते हो तुम दिल के क़रीब।
फुल की सुरत बने उस मैं छुपा रहता हूँ मैं।
तुमने मुझको दिल मैं थोडा बाक़ी रहने क्यूँ दिया।
मैं तो मिसल ए भाप हूँ सो फेलता रहता हूँ मैं।
शाम ढलते तेरी यादों के सहारे इक चराग़।
बुझ भी जाता है कभी तो खुद जला रहता हूँ मैं।
मौत तो हर हाल मैं आनी है इस से क्यूँ डरु।
अपने बद आमाल से बे_दिल डरा रहता हूँ मैं।
—: शहज़ाद बे दिल :—
Source : Shehzad Bedil Facebook