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रोहिंग्या मुसलमानों का प्राचीन इतिहास

अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों और नियमों के मुताबिक़, प्रत्येक व्यक्ति का सबसे बुनियादी और स्पष्ट अधिकार, उस देश का नागरिक होना है, जहां वह पैदा हुआ और रहता है। लेकिन म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों को इस बुनियादी अधिकार से वंचित रखा गया है।

अराकान या रखाइन प्रांत, रोहिंग्याओं का ऐतिहासिक और पैतृक वतन है। यह लोग सैकड़ों वर्षों से रखाइन में रह रहे हैं और बहुत ज़्यादा समय नहीं बीता है कि जब इस सरज़मीन पर उनका शासन था। रोहिंग्या मुसलमानों ने 1430 से 1784 के बीच लगभग 350 वर्षों तक रखाइन पर शासन किया। इस काल के इस्लामी स्मारक और ढाले गए सिक्के मौजूद हैं। इस लंबी अवधि के दौरान, रोहिंग्या शासन के संस्थापक सुलेमान शाह के वंशजों में से 48 राजाओं ने शासन किया। लेकिन आज म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के लिए कोई जगह नहीं है।

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कट्टरपंथी बौद्ध धर्म के लोगों का साफ-साफ कहन है कि म्यांमार में अब रोहिंग्या मुसलमानों के लिए कोई स्थान नहीं है, एक बौद्ध धर्मगुरु भी इसी बात को दोहरा रहा है। हालांकि रोहिंग्या समुदाय, रखाइन में इस्लाम पहुंचने से पहले तक, भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित हिंदू धर्म के अनुयायी थे, लेकिन इस्लाम के वहां पहुंचने के बाद उनमें से अधिकांश ने इस्लाम स्वीकार कर लिया। आज भी रोहिंग्याओं का एक छोटा सा वर्ग, हिंदू है।

इस्लाम से रोहिंग्याओं का परिचय उसके उदय के प्रारम्भिक वर्षों में ईरानी और अरब व्यापारियों के माध्यम से हुआ। मध्य एशिया में जड़ें रखने वाले मुग़लों के शासनकाल के दौरान रख़ाइन, भारत के मुग़ल साम्राज्य से संबंधित था और इस अवधि में अफ़ग़ान, मध्य एशियाई और ईरानी रहस्यवादियों के माध्यम से इस्लाम का काफ़ी विस्तार हुआ। यह स्थिति भारत के ब्रिटिश उपनिवेश बनने और भारतीय उपमहाद्वीप पर अंग्रेज़ों का वर्चस्व क़ायम होने तक जारी रही। लेकिन ब्रिटिश वर्चस्व के बाद, रोहिंग्या मुसलमानों को, बिल्कुल नई परिस्थितियों का सामना करना पड़ा।

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रोहिंग्या मुसलमानों के घरों को आग के हवाले कर दिया गया उन्हें देखते ही मार दिया जा रहा है, एक पीड़ित महिला का कहना है कि हमारे चारों ओर लाशों के ढेर लगे हुए थे जिनमें छोटे-छोटे बच्चे भी शामिल थे। वास्तव में रोहिंग्याओं की समस्याएं भी यहीं से शुरू होती हैं। मुग़लों के दौर में रोहिंग्याओं का अपना शासन था, इसके बावजूद रखाइन, ग्रेटर बंगाल का भाग माना जाता था। भारत के बंटवारे के साथ ग्रेटर बंगाल भी दो टुकड़ों में बंट गया। उसका एक भाग जो अब बांग्लादेश के रूप में है, पूर्वी पाकिस्तान बना और दूसरा भाग भारत का पश्चिम बंगाल राज्य बना।

ग्रेटर बंगाल का तीसरा भाग यही रखाइन है, जो म्यांमार का हिस्सा है। इसलिए कहा जा सकता है कि रोहिंग्याओं की राष्ट्रीयता का मुद्दा, जितना दिखाई देता है, उससे कहीं ज़्यादा जटिल है। इसके पीछे एक ऐतिहासिक परिदृश्य है, जिसका संबंध भारतीय मुग़ल साम्राज्य से है, जिसमें हर क्षेत्र अपने विशेष शासन के साथ ही साम्राज्य का भाग था। बंगाल की भी यही स्थिति थी और कोई ऐसी सीमा नहीं थी, जो नागरिकों और समुदायों को एक दूसरे से अलग करती हो। स्वाभाविक रूप से रोहिंग्या रखाइन समेत ग्रेटर बंगाल में आज़ादी से रहते थे।

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रोहिंग्या फाउंडेशन के चेयरमैन अब्दुल रशीद का कहना है कि 1962 में सेना द्वारा तख़्तापलट किए जाने के बाद से रोहिंग्याओं के प्रति इस देश की सरकार व्यवहार में बदलाव आ गया। अब्दुल रशीद का कहना है कि इस बदलाव में उस समय अधिक तेज़ी आ गई जब वर्ष 1982 में नागरिकता बिल म्यांमार में बनाया गया।

म्यांमार मामलों के विशेषज्ञ, डॉ. रॉबर्ट एंडरसन का मानना ​​है कि रोहिंग्या अल्पसंख्यकों से जुड़े मुद्दे, पहले की ही तरह आज भी हाशिए पर हैं। कनाडा के वैंकूवर स्थित साइमन फ्रेज़र विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित प्रोफ़ेसर एंडरसन ने 1973 में, पहली बार रखाइन के तटों का दौरा किया था। वे कई बार इस देश का दौरा कर चुके हैं और अब 1940 के दशक में म्यांमार का इतिहास लिख रहे हैं।

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उनका मानना है कि म्यांमार के बामर नागरिक, जो ख़ुद को बौद्ध बताते हैं, देश में मुसलमानों की थोड़ी सी संख्या और प्रभाव से चिंतित हैं। यहां तक कि रख़ाइन प्रांत के तटों पर जन्म लेने और बड़े होने वाले बौद्ध, 1920 से मुसलमानों को लेकर चिंतित थे, हालांकि यह चिंता कोई नई बात नहीं है, बल्कि म्यांमार के अन्य नागरिक भी इसे ज़ाहिर कर चुके हैं।

लेकिन कम से कम पिछले पांच सौ वर्षों से मुस्लिम समुदाय म्यांमार के इस हिस्से में मौजूद है और 18वीं और 19वीं शताब्दी में, यह समुदाय रखाइन के तटों पर फला और फूला। 1948 से म्यांमार सरकार ने इस अल्पसंख्यक समुदाय का दमन शुरू किया है और आवश्यकता पड़ने पर उनका इस्तेमाल भी किया है। पाकिस्तान के वरिष्ठ राजनीतिक टीकाकार मुबश्शिर हसन का कहना है कि आज रोहिंग्या पूरी दुनिया में दर-दर भटक रहे हैं उनकी कोई सुध लेने वाला नहीं है।

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ब्रिटिश साम्राज्य की नीतियों की बुनियाद पर 1947 में भारतीय उपमहाद्वीप को धर्म के आधार पर बांट दिया गया। इसी आधार पर बंगाल का भी विभाजन हुआ। रोहिंग्याओं को इस नए भारतीय उपमहाद्वीप से अलग कर दिया गया और म्यांमार से जोड़ दिया गया, लेकिन नई स्थिति में उन्हें राष्ट्रीयता की समस्या का सामना करना पड़ा।

ब्रिटिश औपनिवेशिक नीति ने समय के साथ मुसलमानों को अराकान में अल्पसंख्यक बना दिया, और राखीन जातीय समूह जो थाईलैंड से पलायन करके यहां पहुंचा था, बहुसंख्यक बन गया और ऐतिहासिक अराकान का नाम उन्होंने अपने नाम पर रख दिया। उन्होंने बौद्ध धर्म का अनुयायी होने के कारण, रोहिंग्या मुसलमानों के असली वतन पर क़ब्ज़ा कर लिया है।

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म्यांमार सरकार का कहना है कि रोहिंग्या मुसलमान बंगाली हैं और इनका इस देश पर कोई अधिकार नहीं है। इस बारे में प्रोफेसर शमीम अख़्तर का कहना है कि वास्तव में रोहिंग्या मुसलमान, संस्कृति और भाषा की दृष्टि से, म्यांमार के बौद्धों की तुलना में भारतीय और बांग्लादेशी मुसलमानों से कहीं अधिक निकट हैं। इस बात की पुष्टि, 1947 में रोहिंग्या विचारकों और विद्वानों की उस मांग से हो जाती है, जिसमें उन्होंने पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिनाह से कहा था कि अराकान को पूर्वी पाकिस्तान या वर्तमान बांग्लादेश का हिस्सा बना दिया जाए।

ब्रिटिश साम्राज्य की नीतियों की जानकारी रखने वाले जिनाह ने उनकी इस मांग को ठुकरा दिया और अराकान को म्यांमार से जोड़ दिया गया। इस तरह से रोहिंग्या मुसलमान बिना राष्ट्रीयता वाला या स्टेटलैस समुदाय बन गए, जिन्हें म्यांमार की सरकार, बांग्लादेशी आप्रवासी क़रार देती है और उनके दमन व नस्लीय सफ़ाए में लगी हुई है। जबकि बांग्लादेश सरकार उन्हें म्यांमार का बताती है और नागरिकता देने से बचती है।

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