चुनाव आते ही प्रदेश के अलग-अलग इलाकों में सियासी फतवे जारी करने का सिलसिला शुरू हो जाता है। कभी इसका जोर-शोर से प्रचार किया जाता है, तो कभी खामोशी के साथ उस पर अमल की बात होती है। हालांकि, ज्यादातर इदारों और मसलकों से जुड़े मुफ्ती और मौलवी वोट की अपील के लिए फतवे जारी करने को जायज नहीं मानते। उनका कहना है कि फतवे की परिभाषा है-कुरान और हदीस की व्याख्या। ऐसे में सियासी मामलों पर यह कैसे लागू हो सकती है। वे यह भी कहते हैं कि चुनावी अपील जारी करने वाले धर्मगुरु अवाम में अपनी बात का प्रभाव कम कर लेते हैं।
यह भी पढ़ें : सपा-आरएलडी की इतिहासिक जीत होगी-अखिलेश
सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) का एक सर्वे भी कहता है कि मुसलमानों का बड़ा हिस्सा किसी धर्मगुरु के कहने पर वोट नहीं देता। मुसलमान नागरिक भी वैसे ही अपनी पसंद तय करते हैं, जैसे दूसरे तय करते हैं। जाकिर हुसैन कॉलेज, दिल्ली के शिक्षक डॉ. लक्ष्मण यादव कहते हैं कि यह बात हिंदू मतदाताओं पर भी लागू होती है। वे अपने विवेक से तय करते हैं कि जाति या व्यक्ति के रूप में उन्हें किस तरफ जाना चाहिए। अलबत्ता, अलग-अलग चुनावों में कुछ धर्मगुरुओं के कथन का आंशिक प्रभाव जरूर देखा गया है।
यह भी पढ़ें : अनियंत्रित सफारी पेड़ से टकराई, 3 लोगों की मौके पर मौत
मजहबी व्यक्ति को सियासत से दूर रहना चाहिए। अगर उन पर किसी पार्टी विशेष का ठप्पा लगता है तो एक बड़े तबके में वे अपना असर खो देते हैं। किसी मुफ्ती या मौलाना के सियासी मसले पर राय को फतवा कहना उचित नहीं है। यह राजनीतिक बयानबाजी होती है। पुरानी कहावत है, जवान खून और मजहबी जुनून बहुत जल्दी उबाल खा जाते हैं। इसलिए भी देश की भलाई के लिए मजहबी लोगों के लिए सियासी मुद्दे पर राय नहीं देनी चाहिए।
यह भी पढ़ें : यूपी में 06 फरवरी तक सभी शैक्षणिक संस्थान बंद, ऑनलाइन कक्षाएं रहेंगी जारी
आम लोगों को भी उनकी राजनीतिक बयानबाजी को फतवा मानकर अहमियत नहीं देना चाहिए। किसी के बहकावे में आए बिना, जो सबसे मुफीद प्रत्याशी या पार्टी हो, उसका चुनाव करना चाहिए। यह इसलिए भी जरूरी है कि मुफ्ती या मौलवी के बयान के बाद भी अगर लोकतंत्र में वह पार्टी अपना मुकाम हासिल करने में नाकाम रहती है, तो उस मुफ्ती या मौलवी की छवि पर भी अवाम में खराब असर पड़ता है। -शब्बू मियां, प्रबंधक, खानकाहे नियाजिया, बरेली
दारुल उलूम देवबंद सियासी मामलों पर कभी कोई टिप्पणी नहीं करता। न गुजरे वक्त में कभी की और न वर्तमान में कर रहा है। हम एक खालिस शैक्षणिक संस्था हैं और सियासत से हमारा लेना-देना नहीं। -मुफ्ती अबुल कासिम नोमानी, वीसी, दारुल उलूम देवबंद
यह भी पढ़ें : बुरे समय में क्या राज बब्बर भी छोड़ देंगे साथ
मैं चुनावी फतवे जारी करने का विरोधी हूं। यह हर व्यक्ति का अधिकार है कि उसे जो प्रत्याशी या पार्टी मुफीद लगे, अपने विवेक से उसे ही वोट दे। मौलवी या मुफ्ती को यह अधिकार नहीं है कि वह अवाम को यह बताएं कि किसे वोट दें या किसे वोट न दें। फतवा सिर्फ मजहबी मसलों तक ही सीमित रह सकता है। -मौलाना महमूद मदनी, जमीयत-उलेमा-ए-हिंद
यह भी पढ़ें : सऊदी में फ़रवरी से नया नियम ये नए नियम हो जायेंगे लागू
फतवा मायने कुरान-हदीस की व्याख्या
फतवे का इस्तेमाल सिर्फ मजहबी और शरई मामलात में किया जाता है। सियासी मामलात पर फतवे जारी करना दुरुस्त नहीं है। अगर कोई मौलवी, मुफ्ती या आलिम सियासत पर बोलता है, तो यह उसकी निजी राय ही कही जा सकती है। फतवे की परिभाषा है-कुरान और हदीस की व्याख्या करना, शरई अंदाज में मजहबी रहनुमाई करना…। राजनीतिक मामलों में इसके कथन का इस्तेमाल सरासर गलत है। मुस्लिम समाज में इसकी मान्यता नहीं होनी चाहिए। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक, यूपी में मुसलमानों की तादाद कुल आबादी की 19.26 फीसदी है। इसलिए वैसे भी हमें समझना चाहिए कि इतनी बड़ी आबादी के लिए किसी एक के पक्ष में राजनीतिक अपील कारगर साबित नहीं हो सकती है। प्रदेश में करीब 144 सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं की संख्या बाकी इलाकों के मुकाबले ज्यादा है। इसलिए राजनीतिक दल अपने-अपने पक्ष में बयान दिलाने के इच्छुक दिखते हैं, पर मजहबी रहनुमाई करने वालों को इससे दूर ही रहना चाहिए। -मौलाना शाहबुद्दीन बरेलवी, दरगाह आला हजरत