किसी मुसलमान की ज़िंदगी तबाह करनी है तो उसके घर में सुतली बम फोड़ आइये, पुलिस आकर उसे गिरफ़्तार करेगी, 15-20 साल केस चलेगा, उसका घर सड़क पर आ जाएगा और अंत में अदालत उसे बाइज़्ज़त बरी कर देगी। 10 साल लगेंगे ये साबित करते कि वो बम सुतली बम था और 10 और साल लगेंगे ये साबित करते हुए कि वो सुतली बम किसी और ने फोड़ा था।
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इस बीच काली कोट वाले ऐंकर उसे चीख-चीखकर आतंकी घोषित कर चुके होंगे और उसके बाइज़्ज़त बरी होने की ख़बर चैनल के किसी टिकर में आएगी, फ़्लैश की तरह या वेबसाइट के उस हिस्से में जहाँ कोई जाता ही नहीं है।
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मैं ये सबकुछ इसलिए लिख रहा हूँ क्यूँकि आज ही के दिन हिंदुस्तान ने एक ऐसे वकील को खोया था, जो ऐसे मुसलमानों का केस लड़ता थे और साबित करता थे कि वो आतंकी नहीं हैं। शाहिद आज़मी बस एक वकील नहीं थे, कम से कम उन बेकसूर लोगों के लिए नहीं, जिन्हें वो इंसाफ दिलाते थे।
Eleven years ago this day they silenced him for defending human rights. You are missed everyday Shahid pic.twitter.com/2wGOWwPyXP
— Rana Ayyub (@RanaAyyub) February 11, 2021
कायदे से देखा जाए तो शाहिद आज़मी को मुसलमानों का हीरो होना था, हर मुसलमान के घर में उनके किस्से सुनाए जाने चाहिए थे, हर मुसलमान को उनके बारे में पता होना चाहिए था। पर अफ़सोस ऐसा नहीं है, लिखने वाले को भी वो याद आए जब उनकी शहादत का दिन आया है वरना वो भी भूल ही जाता है। हमें शाहिद आज़मी को इसलिए भी याद रखना चाहिए क्यूँकि इस मुल्क में वो बात कही जाती है ना–हर मुसलमान आतंकवादी नहीं, पर हर आतंकवादी मुसलमान होता है। मतलब हम पहले ही शक के दायरे में हैं, बस वो सुतली बम फूटने की देरी है। शाहिद आज़मी को इसलिए याद रखना है ताकि आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों की ज़िंदगी बर्बाद ना हो।
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मुम्बई के गोवंडी में पले-बढ़े शाहिद की जड़ें उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले में जाकर मिलती हैं, वो शहर जिसे काली कोट वाले ऐंकर किसी वक़्त में आतंकगढ़ बुलाते थे। बम्बई में हिन्दू-मुस्लिम दंगों के बाद शाहिद को भी बिना किसी सबूत, या गवाह के पुलिस ने उठा लिया था, उनपर टाडा लगाया गया और आर्थर रोड जेल से होते हुए तिहाड़ भेजा गया। इस दौरान उनके साथ ज़ुल्म की इन्तेहाँ हुई पर इसके बावजूद उन्होंने हिंदुस्तान और उसके कानून से मोहब्बत नहीं छोड़ी।
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जेल से बाहर आने के बाद शाहिद ने वकालत को अपना हथियार बनाया और अपने जैसे बेकसूर नौजवानों का केस लड़ने लगे। बहुत कम वक़्त में ही शाहिद ने 17 बेकसूर लोगों को बरी करवाया, जिसमें आतंकवाद के आरोप में गिरफ़्तार लोग भी थे।
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11 फरवरी, 2010 को शाहिद को उन्हीं की ऑफिस में गोली मार कर हत्या कर दी गई। शाहिद की मौत के बाद, उनके भाई खालिद अब शाहिद के रास्ते पर चल रहे हैं। शाहिद को अपना रोल मॉडल मानकर कई मुस्लिम नौजवान भी वकालत के पेशे में उतर रहे हैं। शाहिद की ज़िंदगी पर साल 2013 में एक फ़िल्म भी आई, जिसके लिए एक्टर राजकुमार राव को नेशनल अवार्ड भी मिला।
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इसे विडंबना ही कहेंगे कि सबको इंसाफ़ दिलाने वाले वक़ील की हत्या हुए आज 9 साल हो जाएंगे और अभी तक इस केस का ट्रायल ही नहीं शुरू हुआ है। वैसे इस मुल्क में जहाँ एक जज की हत्या पर सालों तक सन्नाटा पसरा रहता है, वहाँ एक वक़ील की हत्या पर कोई आवाज़ उठे, सोचना ही बेमानी है।
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