दो महिलाएं है, एक के पेट मे 7 महीने का गर्भ है, एक के पेट मे 4 महीने का, जो बात इन्होंने किया वो सुनिए-
अपना देस अपना आंगन अपनी मिट्टी की खुशबू छोड़ कर पराए देस भविष्य बनाने आए थे। गांव में सब कुछ था, बस काम नही था। तो शहर जाने की सोचा और आ गए लखनऊ। यहां काम मिला। मेहनत मजदूरी कर के गुज़ारा भी अच्छे से चल रहा था, गांव में अम्मा सबको गर्व से बताती “हमार बहुरिया बड़े सहर में नौकरी करत है”। सब बढ़िया चल रहा था। एक टूटे फूटे छप्पर के अंदर सुखद वैवाहिक जीवन, भगवान की दया से सात महीने पहले गर्भवती हुई। गांव में सब रिश्तेदार खुश थे ये खबर सुन के और बच्चा पैदा होने के समय सबने लखनऊ आने का वादा किया।
लेकिन नियति को कुछ और मंज़ूर है, लॉक डाउन में बचाय हुए पैसे भी खत्म हो गए। रोज़ लगता था अब जीवन पटरी पर आएगा लेकिन धीरे धीरे भूखो मरने की नौबत आ गयी। खाने के लाले पड़ गए आंते कचोटने लगी, गांव लौटने का मन बनाया, और बांध लिया गृहस्थी को सर पर, निकल पड़े उस आंगन की तरफ जहां ब्याह कर आए थे, वहां पुरखों की मिट्टी है, वो हर बड़े ज़ख्म को भर देगी। कहते हुए सुक्की की आंखे भर आईं जो पति के साथ छत्तीसगढ़ से लखनऊ के इटोंजा में आकर मेहनत मजदूरी कर के जीवन यापन कर रही थी। सुक्की की देवरानी गीता भी साथ आई थी, उसके पेट मे 4 महीने का गर्भ है, बहुत बात करने की कोशिश किया लेकिन वो शांत रही कुछ न बोली बस चलती रही गट्ठर बांधे सर पर सख्त धूप में।
Post Source : Kavish Aziz Lenin की फेसबुक वॉल से