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उर्दू के कीट्स, शायर मजाज़ लखनवी

उर्दू शायरी के कीट्स मजाज़ लखनवी

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में एक नज़्म गूंज उठी क्योंकि संस्थान ने 17 अक्टूबर को अपना संस्थापक दिवस मनाया। दुनिया भर के पूर्व छात्रों, जो खुद को ‘अलीग’ के रूप में गर्व से संबोधित करते हैं, ने “ये मेरा चमन, ये मेरा चमन” गाया। जब-जब मोहब्बत को पढ़ा, लिखा या नये तरह से गढ़ने की कोशिश की जायेगी, तब-तब मजाज़ लखनवी का ज़िक्र करना लाज़िमी हो जाएगा।

उर्दू के ‘कीट्स’ कहे जाने वाले असरार उल हक ‘मजाज’ का जन्म 19 अक्तूबर,1911 को उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के रुदौली गांव में हुआ था। मजाज़ का पूरा नाम असरारुल हक़ था। उनकी जिंदगी बहुत लंबी नहीं रही। पर अपनी छोटी सी जिंदगी में उन्होंने उर्दू अदब को जिस तरह समृद्ध किया, वह उर्दू शायरी का स्वर्णिम अध्याय है। मजाज़ बाक़ी शायरों से अलग क्यों थे? आख़िर क्यों मजाज़ की लिखावट में इश्क़ ही इश्क़ है? इन सारी बातों का जवाब है ‘उल्फ़त और वफ़ा।’

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सुप्रसिद्ध शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ मजाज़ के बारे में लिखा है- “मजाज़ की क्रांतिवादिता आम शायरों से भिन्न है. मजाज़ क्रांति का प्रचारक नहीं, क्रांति का गायक है. उसके नग़मे में बरसात के दिन की सी आरामदायक शीतलता है और वसंत की रात की सी प्रिय उष्णता की प्रभावात्मकता.” सही मायनों में कोई क्रांति का गायक ही ये लाइन गुनगुना सकता है-

जिगर और दिल को बचाना भी है
नज़र आप ही से मिलाना भी है

महब्बत का हर भेद पाना भी है
मगर अपना दामन बचाना भी है

ये दुनिया ये उक़्बा कहाँ जाइये
कहीं अह्ले -दिल का ठिकाना भी है?
(उक़्बा- परलोक)

मुझे आज साहिल पे रोने भी दो
कि तूफ़ान में मुस्कुराना भी है

ज़माने से आगे तो बढ़िये ‘मजाज़’
ज़माने को आगे बढ़ाना भी है

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स्वाधीनता हासिल करने के लिए अभिव्यक्ति माध्यम तो है ही, वह स्वाधीनता की पहली और बड़ी शर्त भी है। यह भी कि अभिव्यक्ति का स्वाधीन मिजाज उसे कभी रूढ़िग्रस्त नहीं होने देता है। प्रगतिशीलता उसका आंतरिक मन-मिजाज है। इस तरह खुली और जागरूक अभिव्यक्ति सामाजिक बहुलता को अलगाव में बदलने से रोकती है।

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मजाज शायरों के खानदान से ताल्लुक रखते थे। उनकी बहन का निकाह आज के मशहूर शायर और फिल्मों के पटकथा लेखक जावेद अख्तर के पिता जांनिसार अख्तर के साथ हुआ था। मजाज ने शायरी के सफर का आगाज कॉलेज में पढ़ने के दौरान फनी बदायूंनी की शागिर्दी में की। प्रेम मजाज की शायरी का केंद्रीय तत्व रहा, जो बाद में दर्द में बदल गया। मजाज को चाहने वालों की कमी नहीं थी। पर एक प्रेम प्रसंग ने उनकी जिंदगी में ऐसा तूफान ला दिया कि वे उससे आजीवन उबर न सके। 1929 के दशक में मजाज जिन दिनों आगरा के सेंट जान्स कालेज में पढ़ रहे थे, उनको जज्बी और मैकश अकबराबादी जैसे नामवर शायरों की सोहबत मिली। मजाज़ तो मुहब्बत और इन्किलाब के लिए पैदा हुए थे.

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वे आग़ाज करते हैं-

आओ मिल कर इन्किलाब ताज़ा पैदा करें
दहर पर इस तरह छा जाएं कि सब देखा करें

और निकल पड़े इन्किलाब करने के लिए. साइंस छोड़ दी और फिर से आर्ट लेकर अलीगढ़ से इंटरमीडिएट का इम्तिहान पास किया. 1935 में उन्होंने अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से बीए पास किया. शायरी के अलावा मजाज़ को हॉकी के भी अच्छे खिलाड़ी थे.

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वालिद की चाहत के मुताबिक वे इंजीनियर बनने के बजाए शायरी करने लगे। उनकी शुरुआती गजलों को फानी ने दुरुस्त किया। इसी दौरान उन्होंने व्याकरण सीखा। इसके बाद तो वह निखरते ही चले गए। जब वे आगरा से अलीगढ़ आए तो यहां वो सआदत हसन मंटो, इस्मत चुगताई, अली सरदार ज़ाफरी, सिब्ते हसन, जांनिसार अख्तर जैसे उर्दू के बड़े साहित्यकारों के संसर्ग में आए। इसके बाद उन्होंने अपना तखल्लुस बदलकर ‘मजाज’ कर दिया। उनकी शायरी के दो रंग हैं- एक इश्किया, दूसरा इंकलाब़ी। वे एक तरफ कहते हैं कि ‘तेरे माथे पे ये आंचल तो बहुत ही खूब है लेकिन, तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था’, वहीं वे नाजुकी से भरकर यह भी कहते हैं- ‘कुछ तुम्हारी निगाह काफिर थी, कुछ मुझे भी खराब होना था।’

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तुम कि बन सकती हो हर महफ़िल मैं फिरदौस-ए-नज़र
मुझ को यह दावा कि हर महफ़िल पे छा सकता हूँ मैं

मजाज़ खुद ही नहीं दूसरों को भी क्या से क्या बनाने का तजुर्बा रखते थे-

दिल मैं तुम पैदा करो पहले मेरी सी जुर्रतें
और फिर देखो कि तुमको क्या बना सकता हूँ मैं

असरारुल हक़ मजाज़ ने पहली नौकरी ऑल इंडिया रेडियो में की थी. 1935 में एक साल तक ऑल इंडिया रेडियो की पत्रिका ‘आवाज़’ के सहायक संपादक भी रहे थे. परंतु, अधिक दिनों तक नौकरी नहीं रह सकी. भला कोई दीवाना भी कहीं टिक कर रह सकता है. मजाज़ की शख्सियत में रवानगी थी. वो एक जगह ठहर नहीं सकते थे-

कमाल-ए-इश्क़ है दीवान हो गया हूँ मैं
ये किसके हाथ से दामन छुड़ा रहा हूँ मैं

तुम्हीं तो हो जिसे कहती है नाख़ुदा दुनिया
बचा सको तो बचा लो, कि डूबता हूँ मैं

ये मेरे इश्क़ मजबूरियाँ मा’ज़ अल्लाह
तुम्हारा राज़ तुम्हीं से छुपा रहा हूँ मैं

इस इक हिजाब पे सौ बेहिजाबियाँ सदक़े
जहाँ से चाहता हूँ तुमको देखता हूँ मैं

बनाने वाले वहीं पर बनाते हैं मंज़िल
हज़ार बार जहाँ से गुज़र चुका हूँ मैं

कभी ये ज़ौम कि तू मुझसे छिप नहीं सकता
कभी ये वहम कि ख़ुद भी छिपा हुआ हूँ मैं

मुझे सुने न कोई मस्त-ए-बाद ए-इशरत
मजाज़ टूटे हुए दिल की इक सदा हूँ मैं

और मजाज़ को दिल्ली में ना नौकरी में सफलता मिली न इश्क में. वे लंबे समय तक बेरोजगार रहे. इस दरम्यिान कई काम किए लेकिन कामयाबी हासिल नहीं हुई. बेरोजगारी और भविष्य की ओर से निराशा ने अंदर ही अंदर उन्हें खोखला कर दिया था.

ख़ूब पहचान लो असरार हूँ मैं,
जिन्स-ए-उल्फ़त का तलबगार हूँ मैं

इश्क़ ही इश्क़ है दुनिया मेरी,फ़ित्नः-ए-अक़्ल से बेज़ार हूँ मैं

ख़्वाब-ए-इशरत में है अरबाब-ए-ख़िरद,
और इक शायर-ए-बेदार हूँ मैं

मजाज़ प्रगतिशील आंदोलन के प्रमुख हस्ती रहे अली सरदार जाफ़री के निकट संपर्क में थे. स्वभाव से रोमानी शायर होने के बावजूद उनके काव्य में प्रगतिशीलता के तत्त्व मौजूद रहे हैं. उपयुक्त शब्दों का चुनाव और भाषा की रवानगी ने उनकी शायरी को लोकप्रिय बनाने में प्रमुख कारक तत्व की भूमिका निभायी है. उन्होंने बहुत कम लिखा, लेकिन जो भी लिखा उससे उन्हें काफी प्रसिद्धि मिली.

कब किया था इस दिल पर हुस्न ने करम इतना
मेहरबाँ और इस दर्जा कब था आसमाँ अपना

तेरे माथे पे ये आँचल तो बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था

आगरा तक तो मजाज इश्किया शायर थे, पर अलीगढ़ आते-आते इश्किया शिद्दत इंकलाब में तब्दील हो गई। वैसे भी वह दौर स्वाधीनता आंदोलन में आए तारीखी उबाल का था। देश के नामी कवि-शायर और फनकार इंकलाबी गीत गाने लगे थे। ऐसे माहौल में उन्होंने ‘रात और रेल’, ‘नजर’, ‘अलीगढ़’, ‘नजर खालिदा’, ‘अंधेरी रात का मुसाफिर’, ‘सरमायादारी’ जैसी बेजोड़ रचनाएं लिखीं। उसी दौरान मजाज आल इंडिया रेडियो की पत्रिका ‘आवाज’ के सहायक संपादक हो कर दिल्ली पहुंच गए। दिल्ली में नाकाम इश्क के दर्द ने लखनऊ लौटा दिया।

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फिर देखते-देखते मजाज शराब में डूबते चले गए। एक बेपरवाह और अराजक जिंदगी जीते हुए 15 दिसंबर 1955 को दिमाग की नस फटने से उनका निधन हो गया। अभिव्यक्ति की बुलंदी और तरोताजगी से भरपूर उनकी शायरी पर आज भी उर्दू अदब को नाज है।

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